---:साखी शतक:---भंते शीलभद्र उर्फ जग्गू प्रसाद कुशवाहा
---:साखी शतक:---
कुशवाहा' किससे कहूँ, जग-जीवन की पीर!
सब-के-सब क़ाबिल यहाँ, रमे स्वार्थ गंभीर।।1।।
परमारथ से लाभ क्या, अपना स्वारथ साध!
दुनिया जाये भाँड़ में, बढ़ निज पथ निर्बाध।।2।।
बात बनाते हैं सभी , जैसे परम उदार!
कथनी में मिसरी घुली, करनी तिक्त अपार।।3।।
मन, वाणी औ' कर्म ही, शाश्वत शीलाधार!
इनके साधे सब सधे, खुले परम का द्वार।।4।।
चाहत वो चुड़ैल सखे, जो ले राहत छीन!
राही आहत राह में, रोये हो अति दीन।।5।।
खुद में डुबकी मारकर, साधो साक्षी भाव!
आज नहीं तो कल सखे, होंगे दूर दुराव।।6।।
पिया पास-से-पास हैं, और दूर-से-दूर!
माया ग्रसित जीव सभी,पृथक-पृथक मज़बूर।।7।।
बोलो, मैं कैसे करूँ , अपने प्रभु का गान!
वो तो अकथ-अगम्य हैं, रमते सकल ज़हान।।8।।
---:साखी शतक:---
राजनीति रखैल आज, जन सेवक के गेह!
आखिर जनता क्या करे, वंचित क़ुदरत-नेह।9।।
कर्म कभी निष्फल नहीं, करना सोच-विचार!
क्या जाने किस भूलवश, खाना पड़े पछार।।10।।
कल से विकल कौन नहीं, इस जगती में यार!
'अभी-यहीं' थिति साधकर,पा सुख-शांति अपार।।11।।
'बुद्ध-शरण' अनमोल है, ज्ञान-रतन की खान!
अपनाये जो धम्म-पथ, करे संघ सम्मान।।12।।
ज्ञान-वैराग्य-मुक्ति का, ध्यान सखे आधार!
इसको सत्वर साधकर , उतरो भव के पार।।13।।
देव-दुलभ देह पाकर , किया दनुज-सा काम!
'बगुला-भगती' देखकर , रीझेंगे क्या राम।।14।।
उनकी तो पूछो नहीं, जिनकी टेढ़ी चाल!
कहते सो करते नहीं, डसते बनकर व्याल।।15।।
यदि भरोसा करना है, तो करो खुदी पे यार!
बेखुद होकर क्या कभी, पाया कोई सार।।16।।
---:साखी शतक:---
दास होकर आया है, यह सच तू स्वीकार!
मुक्त होकर जाऊँगा, खुद से करो क़रार।।17।।
नूर नगर की हूर पर, आशिक़ मत हो यार!
जाने कितने दिलफेंक, दाखिल क़ारागार।।18।।
अनुभव के संघर्ष से, छिड़ती जीवन-जंग!
दृढ़ जय खातिर चाहिए, दिल-दिमाग का संग।।19।।
'मैं' में गर बदबू मिले, देना शीघ्र निकाल!
'मैं'-खुशबू के साथ तू, करना काम कमाल।।20।।
सुधा-गरल-आसव लिये ,काल खड़ा तव द्वार!
जियो-मरो-डगमग चलो, तुझपर निर्भर यार।।21।।
करनी-धरनी कुछ नहीं,पर-धन की अति चाह!
ऐसे दुष्ट स्वजन से, रहना दूर सुराह।।22।।
माँ की हरकत देखकर, कवि 'कुशवाहा' दंग!
किन कर्मों का भोग यह,फलित सखे सुत-संग।।23।।
सुख देना संभव नहीं, दुख देना आसान!
या रब ! कैसी बेबसी, आहत चाह निदान।।24।।
---:साखी शतक:---
हैराँ है यमदूत भी, लख माँ का बदहाल!
सोचे, "कैसे ले चलूँ, नरक न हो पामाल।।25।।
अच्छा यहीं पड़ी रहे, मल-मूत्रों के साथ!
साधु सुत है ही हरशै, देने तत्पर साथ।।26।।"
बेटा साधु बन जाये, किसको कहाँ क़बूल?
आम-ही-आम चाहिए, रोपो भले बबूल।।27।।
मम माँ की पूछो नहीं, अपनी कह कुछ यार!
साँप-छुछुन्दर हाल है, कर सेवा स्वीकार।।28।।
नरक नाक दबा भागे, ऐसी कुगति नसीब!
बोलो, इस बदहाल में, आये कौन क़रीब।।29।।
बेटा-बेटी नाम के, हक़ के सब हक़दार!
बिन सेवा सब चाहिए, धन-दौलत-अधिकार।।30।।
कौन समझेगा किसकी, कैसी कुंठित आह!
अपनी ही तो कम नहीं, मर्माहत भव-दाह।।31।।
कैसा हित उस समझ का, वक़्त नहीं उपयोग!
भोगना तो होगा ही, निज करनी का भोग।।32।।
---:साखी शतक:---
मैं नहीं 'नीरज' कहते, हम चौसर की गोटि!
खेले काल - खेलाड़ी, पकड़े सबकी चोटि।।33।।
लोकतंत्र के नाम पर, लूटतंत्र चहुँ ओर!
जनता जर्जर हो रही, जन-सेवक मुँहजोर।।34।।
कोई कहता भाग जा, तज ज़मीं-ज़ायदाद!
तव कारण माँ उपेक्षित, तू ही मूल विवाद ।।35।।
सुन, सत्य सदा ही जयी, होता मैंदाँ जंग!
रावण - कंस करे भले, उछल - कूद -हुड़दंग।।36।।
होता निराश निर्मूल, गर तू मार्ग सुमार्ग!
अभी नहीं तो कल कभी, फलेगा फल कुमार्ग।।37।।
मोह मूल भव-शूल के, सींचो कभी न यार!
इसकी बेलि बढ़ी अगर, सुलभ नहीं सुख-सार।।38।।
'मैं मरूँ' घात लगाये, बैठा जो दिन-रात!
वो ही मरेगा पहले, सुन लो मेरी बात।।39।।
है सही योग का भोग, गलत भोग का योग!
इस गूढ़ अर्थ को समझ, भोग योग या भोग।।40।।
---:साखी शतक:---
राजनीति के राज़ की, खुल जाती तब पोल!
पक्ष - विपक्ष करते जब, वाग्युद्ध उर खोल।।41।।
मनुज दनुज से अति नीच, हो सकता है यार!
इसकी पुष्टि मेरे घर, सहज हुई साकार।।42।।
मनुज रूप उस दनुज से, रहना सदा सचेत!
जो ज़हरीला ज़ाम दे, लुट लेता भव-खेत।।43।।
मीत वो जो बुरे वक़्त, आये तेरे काम!
अन्यथा वो दुश्मन है, लगे भले अभिराम।।44।।
देखी दुर्गति देह की, नेह गया यूँ काँप!
जैसे उसे अकस्मात, सूँघ गया हो साँप।।45।।
हृदयहीन उस मीत से, कौन नहीं आक्रांत!
जो ज़ज़्बाती ज़ाम दे, कर देता उद्भ्रांत।।46।।
या रब, मर्हबा! तूने, कैसा किया मज़ाक़!
मुझसे मेरी साधुता, माँगे मौत - तलाक़।।47।।
दुनिया चाहे जो कहे, मेरा एक उसूल!
'शीलभद्र' नाम मेरा, करूँगा तदनुकूल।।48।।
---:साखी शतक:---
समझनेवाला कोई, नहीं यहाँ पे यार!
समझाने की लत बुरी, किसे न इस संसार।।49।।
पर की खामी देखकर, खुद की जाती भूल!
इसी हेतु पर - ऐब में, रहते हम मशगूल।।50।।
खुद की खामी देखना, सीखो पहले यार!
मैं कहता तब देखना, सभी करेंगे प्यार।।51।।
वन - जीवन को राम ने, जैसे झेला यार!
उसी भाँति तू भी झेल, समझ मिला उपहार।।52।।
किस प्राणी को दुख नहीं, दुखिया सब संसार!
'आर्यसत्य' को समझकर, करो सही उपचार।।53।।
शादी-पूर्व क्या कोई , समझ सका संसार?
मोह संतति बन आता, ढाता कहर हजार।।54।।
लख चाह तुझे चबाती, मसल-मसल दिन-रात!
फिर भी तू जड़ मूढ़-सा,करता खुद का घात।।55।।
माँ की हरक़त पे अगर, तूने किया विचार!
पाप कर्म करने हेतु, होगा तू लाचार।।56।।
---:साखी शतक:---
निर्वंशी का कर्तव्य, माँ का करे खयाल!
वंशी वंशी टेरकर, छेड़े राग रसाल।।57।।
वैज्ञानिक उद्घोष यह, अर्थहीन सब घात!
नाशवान कुछ भी नहीं, पुनर्गठन की बात।।58।।
किसने नहीं किया यहाँ, हसीं इश्क़ इक बार!
किसको कितना क्या मिला, प्रश्न अलग है यार।।59।।
बोध रहित अबुध जीवन, मुझे नहीं स्वीकार!
नाम - रूप में क्या रखा? लख तू तत्त्व-विचार।।60।।
गये जनम के दो शत्रु, बँधते बंधन व्याह!
किस तरह प्रतिशोध सधे, रखते करी निगाह।।61।।
कभी-न-कभी लत तेरी , देगी तुझे लतार!
अतः सत की शरण गहो, देगा तुझे सँवार।।62।।
जिजीविषा हर जीव से, क्या न कराती यार!
मैंने इसे क़रीब से, परखा है शत बार।।63।।
मोह ही जिजीविषा की, एकमात्र संतान!
जिसके वश जग-जीव सब, करता कर्म अजान।।64।।
---:साखी शतक:---
अविद्या ज़ादूगरनी, जीव जमूड़ा शाद!
बके - करे वही ये तो, जो चाहे उस्ताद।।65।।
बकने वाले बकेंगे, बकना उनका काम!
करने वाले करेंगे, हो तन्मय अविराम।।66।।
हक़ीकी और मज़ाजी, इश्क़ यहाँ दो रूप!
एक सँवारे ज़िन्दगी, दूजा करे विरूप।।67।।
जो शत्रु को धूल चटा, दे जय हर्ष अकूत!
राष्ट - हित हेतु चाहिए, सिंह भवानी पूत।।68।।
जरामरण निश्चित यहाँ , सभी जनम के बाद!
सच्चाई छुपती नहीं, कितने करो विवाद।।69।।
तूने जो परिचय दिया, कैसे करूँ बखान!
निज स्वारथ के फ्रेम में, तू तो बड़ा महान।।70।।
यशकीर्ति गायेगा जग, नित उठ सुबहो-शाम!
तेरी बाँछें खिलेंगी, सुन निज जय अभिराम।। 71।।
अब तो मुझको दिख रहे, जाने के आसार!
लगता पाँखी उड़ेगी, अपने पंख पसार।।72।।
---:साखी शतक:---
तू चाहे जितनी करो, चालाकी मम तात!
तेरे कर्म ही तुझको, देंगे इक दिन मात।।73।।
तू साखी लिखते रहो, सुत-उठ सुबहो - शाम!
मैं प्रीतम के घर चली, करने को विश्राम।।74।।
दनुज कहा तो दनुज का, होगा सच अपमान!
'शीलभद्र' इस दुष्ट का, होगा अति सम्मान।।75।।
देह हुई शांत-शीतल, औ' फिर अपलक नैन!
कायाबद्ध माँ-पाँखी, उड़ने को बेचैन।।76।।
स्वस्थ को पागल कहती,परस्थ को गुणवान!
हाय री दुनिया! तू तो, अद्भुत परम महान।।77।।
रे , तैरे जल में नाव, कितनी अच्छी बात!
किन्तु , भरे नाव में जल, यह तो गर्हित तात।।78।।
दुनिया देखे देखकर , मैं देखूँ अनदेख!
यह क्या कोई देखना? यदि ले पहले देख।।79।।
'शीलभद्र' किससे कहे, अपने मन की बात!
अपने तो सपने हुए, परिजन करते घात।।80।।
---:साखी शतक:---
सुख की शादी शांति से, हो जाती गर यार!
मुश्क़िलें हल हो जातीं, उमड़ती ऋतु बहार।।81।।
मौन मुखरित हो जाए, प्रीत सके गर जीत!
दूरी की मज़बूरियाँ , समझ सके तब मीत।।82।।
दो हजार सोलह सुबह, अक्टूबर चौबीस!
'शीलभद्र' जननी सहित, मुक्त हुआ भव-खीस।।83।।
योग भोग का छिन गया, जाएँ तो किस ओर!
अब तो जीना कठिन है, चलो मचाएँ शोर।।84।।
मोदी के फरमान से, आहत हैं वो लोग!
जो काली करतूत का, खुलकर करते भोग।।85।।
चलनी हँसती सूप को, जिसमें शतश: छेद!
जीना मुश्क़िल है वहाँ, पूजित जहाँ लवेद।।86।।
समझ-समझ का फेर है, नासमझी भरपूर!
अंधा अंधे को हँसे , सब-के-सब मगरूर।।87।।
जीव-जगत्-जगदीश को, समझ तत्त्वत: यार!
द्वैताद्वैत अभेद हैं, यह शाश्वत सुविचार।।88।।
---:साखी शतक:---
नाम-रूप संसार में, किसके कौन समान?
यह वैषम्य शाप नहीं, संपूरक वरदान।।89।।
उनका हाल न पूछिए, जो सच कामातीत!
करते काम अनेक वे, होकर रागातीत।।90।।
राग जैसी आग नहीं, न भोग जैसा रोग!
भोगा जिसने त्यागकर, ग्रसा न उसको सोग।।91।।
जीवन के दो छोर हैं, गेहूँ और गुलाब!
किसी एक को प्राप्त कर, उछलो नहीं ज़नाब।।92।।
चन्द्रमुखी की चाह ने, जीना किया तबाह!
फिर भी दृष्टि खुली नहीं, निशिदिन भरते आह।।93।।
मन ही प्रवेश द्वार है, मोक्ष-नगर का यार!
पार किया जिसने इसे, पाया प्रभु का प्यार।।94।।
आओ मिलजुलकर करें, अपना आत्मोद्धार!
कौन कब ?चल पड़े सखे, दोनों हाथ पसार।।95।।
शील ही तो सब कुछ है, बौद्ध-धम्म में यार!
यही नहीं तो कुछ नहीं, व्यर्थ सभी व्यापार।।96।।
---:साखी शतक:---
समाधि के आगोश में, खिलते प्रज्ञा - फूल!
जिसके गिर्द विवेक-अलि, मँड्ड़ाते मशगूल।।97।।
समाधि को संधि समझो, जड़-चेतन के बीच!
शीलवान को सुलभ है, दुलभ पतित औ' नीच।।98।।
शील - समाधि - प्रज्ञावर, करुणा के अवतार!
नमो तथागत शाक्य मुनि, सद्गुण के आगार।।99।
सुत्त-विनय-अभिधम्म तव, ज्ञानामृत अभिराम!
'शीलभद्र' पीकर जिसे, पाया भव - विश्राम।।100।।
----- भंते शीलभद्र उर्फ जग्गू प्रसाद कुशवाहा
-----:🌐:-----
कुशवाहा' किससे कहूँ, जग-जीवन की पीर!
सब-के-सब क़ाबिल यहाँ, रमे स्वार्थ गंभीर।।1।।
परमारथ से लाभ क्या, अपना स्वारथ साध!
दुनिया जाये भाँड़ में, बढ़ निज पथ निर्बाध।।2।।
बात बनाते हैं सभी , जैसे परम उदार!
कथनी में मिसरी घुली, करनी तिक्त अपार।।3।।
मन, वाणी औ' कर्म ही, शाश्वत शीलाधार!
इनके साधे सब सधे, खुले परम का द्वार।।4।।
चाहत वो चुड़ैल सखे, जो ले राहत छीन!
राही आहत राह में, रोये हो अति दीन।।5।।
खुद में डुबकी मारकर, साधो साक्षी भाव!
आज नहीं तो कल सखे, होंगे दूर दुराव।।6।।
पिया पास-से-पास हैं, और दूर-से-दूर!
माया ग्रसित जीव सभी,पृथक-पृथक मज़बूर।।7।।
बोलो, मैं कैसे करूँ , अपने प्रभु का गान!
वो तो अकथ-अगम्य हैं, रमते सकल ज़हान।।8।।
---:साखी शतक:---
राजनीति रखैल आज, जन सेवक के गेह!
आखिर जनता क्या करे, वंचित क़ुदरत-नेह।9।।
कर्म कभी निष्फल नहीं, करना सोच-विचार!
क्या जाने किस भूलवश, खाना पड़े पछार।।10।।
कल से विकल कौन नहीं, इस जगती में यार!
'अभी-यहीं' थिति साधकर,पा सुख-शांति अपार।।11।।
'बुद्ध-शरण' अनमोल है, ज्ञान-रतन की खान!
अपनाये जो धम्म-पथ, करे संघ सम्मान।।12।।
ज्ञान-वैराग्य-मुक्ति का, ध्यान सखे आधार!
इसको सत्वर साधकर , उतरो भव के पार।।13।।
देव-दुलभ देह पाकर , किया दनुज-सा काम!
'बगुला-भगती' देखकर , रीझेंगे क्या राम।।14।।
उनकी तो पूछो नहीं, जिनकी टेढ़ी चाल!
कहते सो करते नहीं, डसते बनकर व्याल।।15।।
यदि भरोसा करना है, तो करो खुदी पे यार!
बेखुद होकर क्या कभी, पाया कोई सार।।16।।
---:साखी शतक:---
दास होकर आया है, यह सच तू स्वीकार!
मुक्त होकर जाऊँगा, खुद से करो क़रार।।17।।
नूर नगर की हूर पर, आशिक़ मत हो यार!
जाने कितने दिलफेंक, दाखिल क़ारागार।।18।।
अनुभव के संघर्ष से, छिड़ती जीवन-जंग!
दृढ़ जय खातिर चाहिए, दिल-दिमाग का संग।।19।।
'मैं' में गर बदबू मिले, देना शीघ्र निकाल!
'मैं'-खुशबू के साथ तू, करना काम कमाल।।20।।
सुधा-गरल-आसव लिये ,काल खड़ा तव द्वार!
जियो-मरो-डगमग चलो, तुझपर निर्भर यार।।21।।
करनी-धरनी कुछ नहीं,पर-धन की अति चाह!
ऐसे दुष्ट स्वजन से, रहना दूर सुराह।।22।।
माँ की हरकत देखकर, कवि 'कुशवाहा' दंग!
किन कर्मों का भोग यह,फलित सखे सुत-संग।।23।।
सुख देना संभव नहीं, दुख देना आसान!
या रब ! कैसी बेबसी, आहत चाह निदान।।24।।
---:साखी शतक:---
हैराँ है यमदूत भी, लख माँ का बदहाल!
सोचे, "कैसे ले चलूँ, नरक न हो पामाल।।25।।
अच्छा यहीं पड़ी रहे, मल-मूत्रों के साथ!
साधु सुत है ही हरशै, देने तत्पर साथ।।26।।"
बेटा साधु बन जाये, किसको कहाँ क़बूल?
आम-ही-आम चाहिए, रोपो भले बबूल।।27।।
मम माँ की पूछो नहीं, अपनी कह कुछ यार!
साँप-छुछुन्दर हाल है, कर सेवा स्वीकार।।28।।
नरक नाक दबा भागे, ऐसी कुगति नसीब!
बोलो, इस बदहाल में, आये कौन क़रीब।।29।।
बेटा-बेटी नाम के, हक़ के सब हक़दार!
बिन सेवा सब चाहिए, धन-दौलत-अधिकार।।30।।
कौन समझेगा किसकी, कैसी कुंठित आह!
अपनी ही तो कम नहीं, मर्माहत भव-दाह।।31।।
कैसा हित उस समझ का, वक़्त नहीं उपयोग!
भोगना तो होगा ही, निज करनी का भोग।।32।।
---:साखी शतक:---
मैं नहीं 'नीरज' कहते, हम चौसर की गोटि!
खेले काल - खेलाड़ी, पकड़े सबकी चोटि।।33।।
लोकतंत्र के नाम पर, लूटतंत्र चहुँ ओर!
जनता जर्जर हो रही, जन-सेवक मुँहजोर।।34।।
कोई कहता भाग जा, तज ज़मीं-ज़ायदाद!
तव कारण माँ उपेक्षित, तू ही मूल विवाद ।।35।।
सुन, सत्य सदा ही जयी, होता मैंदाँ जंग!
रावण - कंस करे भले, उछल - कूद -हुड़दंग।।36।।
होता निराश निर्मूल, गर तू मार्ग सुमार्ग!
अभी नहीं तो कल कभी, फलेगा फल कुमार्ग।।37।।
मोह मूल भव-शूल के, सींचो कभी न यार!
इसकी बेलि बढ़ी अगर, सुलभ नहीं सुख-सार।।38।।
'मैं मरूँ' घात लगाये, बैठा जो दिन-रात!
वो ही मरेगा पहले, सुन लो मेरी बात।।39।।
है सही योग का भोग, गलत भोग का योग!
इस गूढ़ अर्थ को समझ, भोग योग या भोग।।40।।
---:साखी शतक:---
राजनीति के राज़ की, खुल जाती तब पोल!
पक्ष - विपक्ष करते जब, वाग्युद्ध उर खोल।।41।।
मनुज दनुज से अति नीच, हो सकता है यार!
इसकी पुष्टि मेरे घर, सहज हुई साकार।।42।।
मनुज रूप उस दनुज से, रहना सदा सचेत!
जो ज़हरीला ज़ाम दे, लुट लेता भव-खेत।।43।।
मीत वो जो बुरे वक़्त, आये तेरे काम!
अन्यथा वो दुश्मन है, लगे भले अभिराम।।44।।
देखी दुर्गति देह की, नेह गया यूँ काँप!
जैसे उसे अकस्मात, सूँघ गया हो साँप।।45।।
हृदयहीन उस मीत से, कौन नहीं आक्रांत!
जो ज़ज़्बाती ज़ाम दे, कर देता उद्भ्रांत।।46।।
या रब, मर्हबा! तूने, कैसा किया मज़ाक़!
मुझसे मेरी साधुता, माँगे मौत - तलाक़।।47।।
दुनिया चाहे जो कहे, मेरा एक उसूल!
'शीलभद्र' नाम मेरा, करूँगा तदनुकूल।।48।।
---:साखी शतक:---
समझनेवाला कोई, नहीं यहाँ पे यार!
समझाने की लत बुरी, किसे न इस संसार।।49।।
पर की खामी देखकर, खुद की जाती भूल!
इसी हेतु पर - ऐब में, रहते हम मशगूल।।50।।
खुद की खामी देखना, सीखो पहले यार!
मैं कहता तब देखना, सभी करेंगे प्यार।।51।।
वन - जीवन को राम ने, जैसे झेला यार!
उसी भाँति तू भी झेल, समझ मिला उपहार।।52।।
किस प्राणी को दुख नहीं, दुखिया सब संसार!
'आर्यसत्य' को समझकर, करो सही उपचार।।53।।
शादी-पूर्व क्या कोई , समझ सका संसार?
मोह संतति बन आता, ढाता कहर हजार।।54।।
लख चाह तुझे चबाती, मसल-मसल दिन-रात!
फिर भी तू जड़ मूढ़-सा,करता खुद का घात।।55।।
माँ की हरक़त पे अगर, तूने किया विचार!
पाप कर्म करने हेतु, होगा तू लाचार।।56।।
---:साखी शतक:---
निर्वंशी का कर्तव्य, माँ का करे खयाल!
वंशी वंशी टेरकर, छेड़े राग रसाल।।57।।
वैज्ञानिक उद्घोष यह, अर्थहीन सब घात!
नाशवान कुछ भी नहीं, पुनर्गठन की बात।।58।।
किसने नहीं किया यहाँ, हसीं इश्क़ इक बार!
किसको कितना क्या मिला, प्रश्न अलग है यार।।59।।
बोध रहित अबुध जीवन, मुझे नहीं स्वीकार!
नाम - रूप में क्या रखा? लख तू तत्त्व-विचार।।60।।
गये जनम के दो शत्रु, बँधते बंधन व्याह!
किस तरह प्रतिशोध सधे, रखते करी निगाह।।61।।
कभी-न-कभी लत तेरी , देगी तुझे लतार!
अतः सत की शरण गहो, देगा तुझे सँवार।।62।।
जिजीविषा हर जीव से, क्या न कराती यार!
मैंने इसे क़रीब से, परखा है शत बार।।63।।
मोह ही जिजीविषा की, एकमात्र संतान!
जिसके वश जग-जीव सब, करता कर्म अजान।।64।।
---:साखी शतक:---
अविद्या ज़ादूगरनी, जीव जमूड़ा शाद!
बके - करे वही ये तो, जो चाहे उस्ताद।।65।।
बकने वाले बकेंगे, बकना उनका काम!
करने वाले करेंगे, हो तन्मय अविराम।।66।।
हक़ीकी और मज़ाजी, इश्क़ यहाँ दो रूप!
एक सँवारे ज़िन्दगी, दूजा करे विरूप।।67।।
जो शत्रु को धूल चटा, दे जय हर्ष अकूत!
राष्ट - हित हेतु चाहिए, सिंह भवानी पूत।।68।।
जरामरण निश्चित यहाँ , सभी जनम के बाद!
सच्चाई छुपती नहीं, कितने करो विवाद।।69।।
तूने जो परिचय दिया, कैसे करूँ बखान!
निज स्वारथ के फ्रेम में, तू तो बड़ा महान।।70।।
यशकीर्ति गायेगा जग, नित उठ सुबहो-शाम!
तेरी बाँछें खिलेंगी, सुन निज जय अभिराम।। 71।।
अब तो मुझको दिख रहे, जाने के आसार!
लगता पाँखी उड़ेगी, अपने पंख पसार।।72।।
---:साखी शतक:---
तू चाहे जितनी करो, चालाकी मम तात!
तेरे कर्म ही तुझको, देंगे इक दिन मात।।73।।
तू साखी लिखते रहो, सुत-उठ सुबहो - शाम!
मैं प्रीतम के घर चली, करने को विश्राम।।74।।
दनुज कहा तो दनुज का, होगा सच अपमान!
'शीलभद्र' इस दुष्ट का, होगा अति सम्मान।।75।।
देह हुई शांत-शीतल, औ' फिर अपलक नैन!
कायाबद्ध माँ-पाँखी, उड़ने को बेचैन।।76।।
स्वस्थ को पागल कहती,परस्थ को गुणवान!
हाय री दुनिया! तू तो, अद्भुत परम महान।।77।।
रे , तैरे जल में नाव, कितनी अच्छी बात!
किन्तु , भरे नाव में जल, यह तो गर्हित तात।।78।।
दुनिया देखे देखकर , मैं देखूँ अनदेख!
यह क्या कोई देखना? यदि ले पहले देख।।79।।
'शीलभद्र' किससे कहे, अपने मन की बात!
अपने तो सपने हुए, परिजन करते घात।।80।।
---:साखी शतक:---
सुख की शादी शांति से, हो जाती गर यार!
मुश्क़िलें हल हो जातीं, उमड़ती ऋतु बहार।।81।।
मौन मुखरित हो जाए, प्रीत सके गर जीत!
दूरी की मज़बूरियाँ , समझ सके तब मीत।।82।।
दो हजार सोलह सुबह, अक्टूबर चौबीस!
'शीलभद्र' जननी सहित, मुक्त हुआ भव-खीस।।83।।
योग भोग का छिन गया, जाएँ तो किस ओर!
अब तो जीना कठिन है, चलो मचाएँ शोर।।84।।
मोदी के फरमान से, आहत हैं वो लोग!
जो काली करतूत का, खुलकर करते भोग।।85।।
चलनी हँसती सूप को, जिसमें शतश: छेद!
जीना मुश्क़िल है वहाँ, पूजित जहाँ लवेद।।86।।
समझ-समझ का फेर है, नासमझी भरपूर!
अंधा अंधे को हँसे , सब-के-सब मगरूर।।87।।
जीव-जगत्-जगदीश को, समझ तत्त्वत: यार!
द्वैताद्वैत अभेद हैं, यह शाश्वत सुविचार।।88।।
---:साखी शतक:---
नाम-रूप संसार में, किसके कौन समान?
यह वैषम्य शाप नहीं, संपूरक वरदान।।89।।
उनका हाल न पूछिए, जो सच कामातीत!
करते काम अनेक वे, होकर रागातीत।।90।।
राग जैसी आग नहीं, न भोग जैसा रोग!
भोगा जिसने त्यागकर, ग्रसा न उसको सोग।।91।।
जीवन के दो छोर हैं, गेहूँ और गुलाब!
किसी एक को प्राप्त कर, उछलो नहीं ज़नाब।।92।।
चन्द्रमुखी की चाह ने, जीना किया तबाह!
फिर भी दृष्टि खुली नहीं, निशिदिन भरते आह।।93।।
मन ही प्रवेश द्वार है, मोक्ष-नगर का यार!
पार किया जिसने इसे, पाया प्रभु का प्यार।।94।।
आओ मिलजुलकर करें, अपना आत्मोद्धार!
कौन कब ?चल पड़े सखे, दोनों हाथ पसार।।95।।
शील ही तो सब कुछ है, बौद्ध-धम्म में यार!
यही नहीं तो कुछ नहीं, व्यर्थ सभी व्यापार।।96।।
---:साखी शतक:---
समाधि के आगोश में, खिलते प्रज्ञा - फूल!
जिसके गिर्द विवेक-अलि, मँड्ड़ाते मशगूल।।97।।
समाधि को संधि समझो, जड़-चेतन के बीच!
शीलवान को सुलभ है, दुलभ पतित औ' नीच।।98।।
शील - समाधि - प्रज्ञावर, करुणा के अवतार!
नमो तथागत शाक्य मुनि, सद्गुण के आगार।।99।
सुत्त-विनय-अभिधम्म तव, ज्ञानामृत अभिराम!
'शीलभद्र' पीकर जिसे, पाया भव - विश्राम।।100।।
----- भंते शीलभद्र उर्फ जग्गू प्रसाद कुशवाहा
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